"न्यायपूर्ण समाज की दिशा में पहला कदम: प्राथमिक अभिविन्यास और समता"
एक सशक्त, समान और न्यायपूर्ण समाज की नींव उस मानसिकता से रखी जाती है, जो बचपन से ही व्यक्ति के भीतर विकसित होती है। समाज के प्रत्येक सदस्य में जब समानता का भाव, दूसरों के प्रति सम्मान और नैतिक मूल्यों की समझ होती है, तब हम एक समावेशी राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं। इसी सोच का केंद्र है "प्राथमिक अभिविन्यास" और "समता निर्माण"। प्राथमिक अभिविन्यास का तात्पर्य है – प्रारंभिक स्तर पर, विशेषकर बचपन और किशोरावस्था में, व्यक्तियों की सोच, दृष्टिकोण और मूल्यों का निर्माण। वहीं, समता निर्माण का अर्थ है – समाज में सभी को समान अवसर, अधिकार और सम्मान देना, चाहे वह लिंग, जाति, धर्म, वर्ग, भाषा या शारीरिक स्थिति के आधार पर हो।
प्राथमिक अभिविन्यास किसी भी व्यक्ति के जीवन की सबसे संवेदनशील और निर्णायक अवस्था होती है। यह वही दौर होता है जब एक बालक या बालिका अपने आसपास के समाज, परिवार और विद्यालय से संस्कार, व्यवहार और दृष्टिकोण सीखता है। जब एक बच्चा यह देखता है कि घर में लड़का-लड़की को समान महत्व मिलता है, या स्कूल में सभी छात्रों को बराबरी से देखा जाता है, तो उसके मन में समानता, सम्मान और समावेश की भावना विकसित होती है। इसके विपरीत, अगर बाल्यकाल में भेदभाव, हिंसा या असमानता को बढ़ावा दिया जाए, तो वही सोच बड़े होकर समाज में अन्याय और विषमता को जन्म देती है।
इसलिए यह अत्यंत आवश्यक है कि प्राथमिक शिक्षा और पालन-पोषण के दौरान बच्चों में सकारात्मक दृष्टिकोण, नैतिक मूल्य और सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना विकसित की जाए। यही प्राथमिक अभिविन्यास उन्हें जीवनभर के लिए एक संवेदनशील और न्यायप्रिय नागरिक बनाता है। भारत का संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है, परंतु व्यवहार में आज भी अनेक स्तरों पर भेदभाव व्याप्त है। चाहे वह लिंग असमानता, जातीय भेदभाव, धार्मिक पक्षपात हो या आर्थिक विषमता, ये सभी समाज की जड़ों को खोखला करते हैं।
समता निर्माण केवल नीतियों या कानूनों से नहीं होता, यह सामाजिक व्यवहार और सोच में परिवर्तन से ही संभव है। जब हम हर व्यक्ति को – उसकी पहचान, स्थिति या पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना – सम्मान और समान अवसर देते हैं, तभी एक न्यायसंगत समाज की स्थापना होती है। समता निर्माण का दायरा केवल शिक्षा और रोजगार तक सीमित नहीं होना चाहिए। इसमें शामिल है: लैंगिक समानता (Gender Equality), सामाजिक न्याय, शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के लिए समावेश, सांस्कृतिक विविधता का सम्मान, आर्थिक संसाधनों तक सबकी पहुँच है समता का भाव केवल एक विचार नहीं, बल्कि एक व्यवहारिक नीति और नैतिक दायित्व है, जिसे हर नागरिक, शिक्षक, अभिभावक और संस्था को निभाना चाहिए।
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